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गणेशजी की कथा

गणेशजी की कथा

 

*गणेश जी की कथा को सुनना अत्यंत ही शुभ होता है।*

एक बार गणेश जी महाराज, एक सेठ जी के खेत में से जा रहे थे तो उन्होंने बारह दाने अनाज के तोड़ लिए। फिर गणेश जी के मन में पछतावा हुआ कि मैंने तो सेठ जी के यहां चोरी कर ली। गणेश जी सेठ जी के बारह साल की नौकरी करने लग गए।

एक दिन सेठानी राख से हाथ धोने लगी तो गणेश जी ने सेठानी का हाथ पकड़ कर मिट्टी से हाथ धुला दिया। सेठानी सेठ जी से बोली कि ऐसा क्या नौकर रखा है नौकर होकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। सेठ जी ने गणेश को बुलाकर पूछा कि तुमने सेठानी का हाथ क्यों पकड़ा। गणेश जी ने बोला कि मैंने तो एक सीख की बात बताई है। राख से हाथ धोने से घर की लक्ष्मी नाराज होकर घर से चली जाती है और मिट्टी से हाथ धोने से आती है। सेठ जी ने सोचा कि गणेश है तो सच्चा।

थोड़े दिनों बाद कुंभ का मेला आया। सेठ जी ने कहा गणेश, सेठानी को कुंभ के मेले में स्नान करा लाओ।

सेठानी किनारे पर बैठकर नहा रही थी तो गणेश जी उनका हाथ पकड़कर आगे डुबकी लगवा लाये। घर आकर सेठानी ने सेठ से कहा कि गणेश ने तो मेरी इज्जत ही नहीं रखी और इतने सारे आदमियों के बीच में मुझे घसीट कर आगे पानी में ले गए। तब सेठ जी ने गणेश जी को पूछा कि ऐसा क्यों किया तो गणेश जी ने कहा कि सेठानी किनारे बैठकर गंदे पानी से नहा रही थी । तो मैं आगे अच्छे पानी में डुबकी लगवाकर ले आया। इससे अगले जन्म में बहुत बड़े राजा और राजपाट मिलेगा। सेठ जी ने सोचा कि गणेश है तो सच्चा।

एक दिन घर में पूजा पाठ हो रही थी। हवन हो रहा था। सेठ जी ने गणेश को कहा कि जाओ सेठानी को बुलाकर ले आओ ।

 

गणेश सेठानी को बुलाने गया तो सेठानी काली चुनरी ओढ़ कर चलने लगी तो गणेश जी ने काली चुनरी फाड़ दी और कहा कि लाल चुनरी ओढ़ के चलो। सेठानी नाराज होकर सो गई, सेठ जी ने आकर पूछा क्या बात है तो सेठ ने बोला कि गणेश ने मेरी चुनरी फाड़ दी। सेठ जी ने गणेश को बुलाकर बहुत डांटा और कहा तुम बहुत बदमाशी करते हो । तो गणेश जी ने कहा पूजा पाठ में काला वस्त्र नहीं पहनते हैं इसलिए मैंने लाल वस्त्र के लिए कहा ।

काला वस्त्र पहनने से कोई भी शुभ काम सफल नहीं होता है। फिर सेठजी ने सोचा कि गणेश है तो समझदार ।

एक दिन सेठजी पूजा करने लगे तो पंडित जी ने बोला कि वो गणेश जी की मूर्ति लाना भूल गया। अब क्या करें ? गणेश जी ने बोला कि मुझ को ही मूर्ति बनाकर विराजमान कर लो, आपके सारे काम सफल हो जाएंगे। यह बात सुनकर सेठ जी को भी बहुत गुस्सा आया। वो बोले कि तुम तो अब तक सेठानी से ही मजाक करते थे मुझ से भी करने लग गए ।

गणेश जी ने कहा मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। मैं सच बात कह रहा हूं।

इतने में ही गणेश ने गणेश जी का रूप धारण कर लिया। सेठ और सेठानी ने गणेश जी की पूजा की। पूजा खत्म होते ही गणेश जी अंतर्धान हो गए। सेठ सेठानी को बहुत दुःख हुआ उन्होंने कहा कि हमारे पास तो गणेश जी रहते थे और हमने उनसे इतना काम कराया।

गणेश जी ने सपने में आकर सेठ जी को कहा कि आप के खेत में से मैंने बारह अनाज के दाने तोड़ लिए थे। उसी का दोष उतारने के लिए मैंने आपके यहां काम किया था । सेठ जी के करोड़ों की माया हो गई ।

हे गणेश जी महाराज जैसा सेठजी को दिया वैसा सबको देना।

🚩🙏जय श्री गणेश जी🙏🚩

।।राम।।

*श्रीराम जी की कृपा !*

 

जब भगवान श्रीराम अपने धाम को चले उस समय उनके साथ अयोध्या के सभी पशु – पक्षी, पेड़- पोधे मनुष्य भी उनके साथ चल पड़े।

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उन मनुष्यो में श्री सीता जी की निंदा करने वाला धोबी भी साथ में था ,

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भगवान ने उस धोबी का हाथ अपने हाथ में पकड़ रखा था और उनको अपने साथ लिए चल रहे थे।

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जिस – जिस ने भगवान को जाते देखा वे सब भगवान के साथ चल पड़े कहते है की वहां के पर्वत भी उनके साथ चल पड़े।

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सभी पशु पक्षी पेड़ पोधे पर्वत और मनुष्यों ने जब साकेत धाम में प्रवेश होना चाहा तब साकेत का द्वार खुल गया ……

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पर जैसे ही उस निंदनीय धोबी ने प्रवेश करना चाहा तो द्वार बंद हो गया।

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साकेत द्वार ने भगवान से कहा महाराज ! आप भले ही इनका हाथ पकड़ ले पर ये जगत जननी माता श्री सीता जी की निंदा कर चुका है

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इसलिए ये इतना बड़ा पापी है की मेरे द्वार से साकेत में प्रवेश नही कर सकता।

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जिस समय भगवान सब को लेकर साकेत जा रहे थे उस समय सभी देवी – देवता आकाश मार्ग से देख रहे थे , की माता जी की निंदा करने वाले पापी धोबी को भगवान कहा भेजते है।

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भगवान ने द्वार बन्द होते ही इधर – उधर देखा तो ब्रह्मा जी ने सोचा की कही भगवान इस पापी को मेरे ब्रह्म लोक में न भेज दे ,

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वे हाथ हिला – हिला कर कहने लगे , महाराज ! इस पापी के लिए मेरे ब्रह्म लोक में कोई स्थान नही है।

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इंद्र ने सोचा की कही मेरे इन्द्र लोक में न भेज दे , इंद्र भी घबराये , वे भी हाथ हिला – हिला कर कहने लगे , महाराज ! इस पापी को मेरे इन्द्र लोक में भी कोई जगह नही है।

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ध्रुव जी ने सोचा की कही इस पापी को मेरे ध्रुव लोक में भेज दिया तो इसका पाप इतना बड़ा है की….

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इसके पाप के बोझ से मेरा ध्रुव लोक गिर कर नीचे आ जायेगा ऐसा विचार कर ध्रुव जी भी हाथ हिला – हिला कर कहने लगे

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महाराज ! आप इस पापी को मेरे पास भी मत भेजिएगा।

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जिन – जिन देवताओं का एक अपना अलग से लोक बना हुआ था उन सभी देवताओं ने उस निंदनीय पापी धोबी को अपने लोक मे रखने से मना कर दिया।

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भगवान खड़े – खड़े मुस्कुराते हुए सब का चेहरा देख रहे है पर कुछ बोलते नही |

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उस देवताओ की भीड़ में यमराज भी खड़े थे , यमराज ने सोचा की ये किसी लोक में जाने का अधिकारी नही है अब इस पापी को भगवान कही मेरे यहाँ न भेज दे …..

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और माता की निंदा करने वाले को में अपनी यमपुरी में नई रख सकता वे घबराकर उतावली वाणी से बोले ,

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महाराज ! महाराज ! ये इतना बड़ा पापी है की इसके लिए मेरी यमपुरी में भी कोई जगह नही है।

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उस समय धोबी को घबराहट होने लगी की मेरी दुर्बुद्धी ने इतना निंदनीय कर्म करवा दिया की यमराज भी मुझे नही रख सकते !

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भगवान ने धोबी की घबराहट देख कर धोबी की और संकेत से कहा तुम घबराओ मत ! मैं अभी तुम्हारे लिए एक नए साकेत का निर्माण करता हूँ ,

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तब भगवान ने उस धोबी के लिए एक अलग साकेत धाम बनाया।

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यहाँ एक चोपाई आती है !

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सिय निँदक अघ ओघ नसाए ।

लोक बिसोक बनाइ बसाए ।।

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ऐसा अनुभव होता है की आज भी वो धोबी अकेला ही उस साकेत में पड़ा है जहा न कोई देवी देवता है न भगवान ,

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न वो किसी को देख सकता है और न उसको कोई देख सकते है।

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तात्पर्य यह है की भगवान अथवा किसी भी देवी देवता की निंदा करने वालो के लिए कही कोई स्थान नही है।

 

।। *हर हर महादेव ।।*

ये कथा सोने से पहले जरूर सबको सुनाईये … 🙏🙏

 

एक निर्धन व्यक्ति था। वह नित्य भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी की पूजा करता।

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एक बार दीपावली के दिन भगवती लक्ष्मी की श्रद्धा-भक्ति से पूजा-अर्चना की। कहते हैं उसकी आराधना से माँ लक्ष्मी प्रसन्न हुईं।

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वह उसके सामने प्रकट हुईं और उसे एक अंगूठी भेंट देकर अदृश्य हो गईं। अंगूठी सामान्य नहीं थी।

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उसे पहनकर जैसे ही अगले दिन उसने धन पाने की कामना की, उसके सामने धन का ढेर लग गया।

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वह ख़ुशी के मारे झूम उठा। इसी बीच उसे भूख लगी, तो मन में अच्छे पकवान खाने की इच्छा हुई। कुछ ही पल में उसके सामने पकवान आ गए।

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अंगूठी का चमत्कार मालूम पड़ते ही उसने अपने लिए आलीशान बंगला, नौकर-चाकर आदि तमाम सुविधाएं प्राप्त कर लीं।

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वह भगवती लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त उस अंगूठी के कारण सुख से रहने लगा। अब उसे किसी प्रकार का कोई दु:ख, कष्ट या चिंता नहीं थी। नगर में उसका बहुत नाम हो गया।

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एक दिन उस नगर में जोरदार तूफ़ान के साथ बारिश होने लगी। कई निर्धन लोगों के मकानों के छप्पर उड़ गए।

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लोग इधर-उधर भागने लगे। एक बुढ़िया उसके बंगले में आ गई।

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उसे देख वह व्यक्ति गरजकर बोला- ‘ऐ बुढ़िया कहां चली आ रही है बिना पूछे।’

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बुढ़िया ने कहा, ‘कुछ देर के लिए तुम्हारे यहां रहना चाहती हूं।’ लेकिन उसने उसे बुरी तरह डांट-डपट दिया।

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उस बुढ़िया ने कहा, ‘मेरा कोई आसरा नहीं है। इतनी तेज बारिश में कहां जाऊंगी? थोड़ी देर की ही तो बात है।’

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लेकिन उसकी किसी भी बात का असर उस व्यक्ति पर नहीं पड़ा।

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जैसे ही सेवकों ने उसे द्वार से बाहर किया, वैसे ही जोरदार बिजली कौंधी। देखते ही देखते उस व्यक्ति का मकान जलकर खाक़ हो गया।

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उसके हाथों की अंगूठी भी गायब हो गई। सारा वैभव पलभर में राख के ढेर में बदल गया।

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उसने आंख खोलकर जब देखा, तो सामने लक्ष्मीजी थीं, जो बुढ़िया कुछ देर पहले उसके सामने दीन-हीन होकर गिड़गिड़ा रही थीं, वही अब लक्ष्मीजी के रूप में उसके सामने मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं।

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वह समझ गया उसने बुढ़िया को नहीं, साक्षात लक्ष्मीजी को घर से निकाल दिया था। वह भगवती के चरणों में गिर पड़ा।

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देवी बोलीं, ‘तुम इस योग्य नहीं हो। जहां निर्धनों का सम्मान नहीं होता, मैं वहां निवास नहीं कर सकती।

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यह कहकर लक्ष्मीजी उसकी आंखों से ओझल हो गईं।

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*🌹जय जय मां लक्ष्मी🌹कथा नर और नारायण की

*〰️〰️🌼〰️ॐसत्य〰️🌼〰️〰️*

प्रभु जी श्री कृष्ण जी को अर्जुन सबसे प्रिय इसलिए थे कि वो नर के अवतार थे और श्री कृष्ण स्वयं नारायण थे।

आपने नर और नारायण का नाम तो सुना ही होगा।

 

भारत का शिरोमुकुट हिमालय है, जो समस्त पर्वतों का पति होने से गिरिराज कहलाता है उसी के एक उत्तुंग शिखर के प्रांगण में बद्रिकाश्रम या बदरीवन है। वहाँ पर इन चर्म चक्षुओं से न दीखने वाला बदरी का एक विशाल वृक्ष है, इसी प्रकार का प्रयाग में अक्षयवट है। बदरी वृक्ष में लक्ष्मी का वास है, इसीलिये लक्ष्मीपति को यह दिव्य वृक्ष अत्यन्त प्रिय है। उसकी सुखद शीतल छाया में भगवान् ऋषि मुनियों के साथ सदा तपस्या में निरत रहते हैं। बदरी वृक्ष के कारण ही यह क्षेत्र बदरी क्षेत्र कहलाता है और नर-नारायण का निवास स्थान होने से इसे नर-नारायण या नारायणाश्रम भी कहते हैं।

 

सृष्टि के आदि में भगवान् ब्रह्मा ने अपने मन से 10 पुत्र उत्पन्न किये। ये संकल्प से ही अयोनिज उत्पन्न हुए थे, इसलिये ब्रह्मा के मानस पुत्र कहाये। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद है। इनके द्वारा ही आगे समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई। इसके अतिरिक्त ब्रह्माजी के दायें स्तन से धर्मदेव उत्पन्न हुए और पृष्ठ भाग से अधर्म। अधर्म का भी वंश बढ़ा उसकी स्त्री का नाम मृषा (झूठ) था, उसके दम्भ और माया नाम के पुत्र हुए। उन दोनों से लोभ और निकृति (शठता) ये उत्पन्न हुए, फिर उन दोनों से क्रोध और हिंसा दो लड़की लडके हुए। क्रोध और हिंसा के कलि और दुरक्ति हुए। उनके भय ओर मृत्यु हुए तथा भय मृत्यु से यातना (दुख) और निरय नरक ये हुए। ये सब अधर्म की सन्तति है। ’’दुर्जनं प्रथम बन्दे सज्जनं तदनन्तरम्’’ इस न्याय से अधर्म की वंशावली के बाद अब धर्म की सन्तति –

 

ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति का विवाह मनु पुत्री प्रसूती से हुआ। प्रसूति में दक्ष प्रजापति ने 16 कन्यायें उत्पन्न की। उनमें से 13 का विवाह धर्म के साथ किया। एक कन्या अग्नि को दी, एक पितृगण को, एक भगवान् शिव को। जिनका विवाह धर्म के साथ हुआ उनके नाम – श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि मेधा, तितिक्षा, ही और मूर्ति।

 

धर्म की ये सब पत्नियाँ पुत्रवती हुई। सबने एक एक पुत्र रत्न उत्पन्न किया। जैसे श्रद्धा ने शुभ को उत्पन्न किया, मैनी ने प्रसाद को, दया ने अभय को, शान्ति ने सुख को, तुष्टि ने मोद को, पुष्टि ने अहंकार को, क्रिया ने योग को उन्नति ने दर्प को, पुद्धि ने अर्थ को, मेधा ने स्मृति को, तितिक्षा ने क्षेम को, और ही (लल्जा) ने प्रश्रय (विनय) को और सबसे छोटी मूर्ति देवी ने भगवान् नर-नारायण को उत्पन्न किया। क्योंकि मूर्ति में ही भगवान् की उत्पत्ति हो सकती है। वह मूर्ति भी धर्म की ही पत्नी है।

 

नर-नारायण ने अपनी माता मूर्ति की बहुत अधिक बड़ी श्रद्धा से सेवा की। अपने पुत्रों की सेवा से सन्तुष्ट होकर माता ने पुत्रों से वर माँगने को कहा। पुत्रों ने कहा-’’माँ, यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो वरदान दीजिये कि हमारी रूचि सदा तप में रहे और घरबार छोड़कर हम सदा तप में ही निरत रहें।’’ माता को यह अच्छा कैसे लगता कि मेरे प्राणों से भी प्यारे पुत्र घर-बार छोड़कर सदा के लिये वनवासी बन जायँ, किन्तु वे वचन हार चुकी थी। अतः उन्होंने अपने आँखों के तारे आज्ञाकारी पुत्रों को तप करने की आज्ञा दे दी। दोनों भाई बदरिकाश्रम में जाकर तपस्या में निरत हो गये।

 

बदरिकाश्रम में जाकर दोनों भाई घोर तपस्या करने लगें इनकी तपस्या के सम्बन्ध में पुराणों में भिन्न-भिन्न प्रकार की कथायें हैं।

 

श्रीमद्भागवत में कई स्थानों पर भगवान् नर-नारायण का उल्लेख है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कन्द में तो नर-नारायण की बड़ी लम्बी कथा है।

 

नर और नारायण भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए केदारखंड में उस स्थान पर तपस्या करने लगे जहां पर आज ब्रदीनाथ धाम है।

 

इनकी तपस्या से इंद्र परेशान होने लगे। इंद्र को लगने लगा कि नर और नारायण इंद्रलोक पर अधिकार न कर लें। इसलिए इंद्र ने अप्सराओं को नर और नारायण के पास तपस्या भंग करने के लिए भेजा।

उन्होंने जाकर भगवान नर-नारायण को अपनी नाना प्रकार की कलाओं के द्वारा तपस्या भंग करने का प्रयास किया, किंतु उनके ऊपर कामदेव तथा उसके सहयोगियों का कोई प्रभाव न पड़ा। कामदेव, वसंत तथा अप्सराएं शाप के भय से थर-थर कांपने लगे। उनकी यह दशा देखकर भगवान नर और नारायण ने कहा, ‘तुम लोग मत डरो। हम प्रेम और प्रसन्नता से तुम लोगों का स्वागत करते हैं।’

भगवान नर और नारायण की अभय देने वाली वाणी को सुनकर काम अपने सहयोगियों के साथ अत्यन्त लज्जित हुआ। उसने उनकी स्तुति करते हुए कहा- प्रभो! आप निर्विकार परम तत्व हैं। बड़े बड़े आत्मज्ञानी पुरुष आपके चरण.

कमलों की सेवा के प्रभाव से कामविजयी हो जाते हैं। हमारे ऊपर आप अपनी कृपादृष्टि सदैव बनाए रखें। हमारी

आपसे यही प्रार्थना है। आप देवाधिदे विष्णु हैं।

 

कामदेव की स्तुति सुनकर भगवान नर नारायण प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी योगमाया के द्वारा एक अद्भुत लीला दिखाई। सभी लोगों ने देखा कि 16000 सुंदर-सुंदर नारियां नर और नारायण की सेवा कर रही हैं। फिर नारायण ने इंद्र की अप्सराओं से भी सुंदर अप्सरा को अपनी जंघा से उत्पन्न कर दिया। उर्व से उत्पन्न होने के कारण इस अप्सरा का नाम उर्वशी रखा। नारायण ने इस अप्सरा को इंद्र को भेंट कर दिया। उन 16000 कन्याओं ने नारायण से विवाह की इच्छा जाहिर की,तब नारायण ने उन्हें कहा कि द्वापर में मेरा कृष्ण अवतार होगा।तब तक प्रतीक्षा करने को कहा

 

उनकी आज्ञा मानकर कामदेव ने अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी को लेकर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। उसने देवसभा में जाकर भगवान नर और नारायण की अतुलित महिमा के बारे में सबसे कहा, जिसे सुनकर देवराज इंद्र को काफी पश्चाताप हुआ।

 

केदार और बदरीवन में नर-नारायण नाम ने घोर तपस्या की थी। इसलिए यह स्थान मूलत: इन दो ऋषियों का स्थान है। दोनों ने केदारनाथ में शिवलिंग और बदरीकाश्रम में विष्णु के विग्रहरूप की स्थापना की थी।

 

*केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पति*

 

भगवान शिव की प्रार्थना करते हुए दोनों कहते हैं कि हे शिव आप हमारी पूजा ग्रहण करें।

 

नर और नारायण के पूजा आग्रह पर भगवान शिव स्वयं उस पार्थिव लिंग में आते हैं। इस तरह पार्थिव लिंग के पूजन में वक्त गुजरता जाता है। एक दिन भगवान शिव खुश होते हैं और नर व नारायण के सामने प्रकट होकर कहते हैं कि वो उनकी अराधना से बेहद खुश हैं इसलिए वर मांगो।

 

नर और नारायण कहते हैं, हे प्रभु अगर आप प्रसन्न हैं तो लोक कल्याण के लिए कुछ कीजिए। भगवान शिव कहते हैं कि कहो क्या कहना चाहते हो। इस पर नर और नारायण कहते हैं कि जिस पार्थिव लिंग में हमने आपकी पूजा की है उस लिंग में आप स्वयं निवास कीजिए ताकि आपके दर्शन मात्र से लोगों का कष्ट दूर हो जाए।

 

दोनों भाइयों के अनुरोध से भगवान शिव और प्रसन्न हो जाते हैं और केदारनाथ के इस तीर्थ में केदारेश्वर ज्योतिलिंग के रुप में निवास करने लगते हैं। इस तरह केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पति होती है।

 

महाभारत के अनुसार पाप से मुक्त होने के बाद केदारेश्वर में स्थित ज्योतिर्लिंग के आसपास मंदिर का निर्माण पांडवों ने अपने हाथ से किया था। बाद में इसका दोबारा निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था। इसके बाद राजा भोज ने यहां पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया था।

यही नर और नारायण द्वापर में अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे।

*〰️〰️🌼〰️〰️🌼ॐसत्य जय माता दी 🌼〰️〰️🌼〰️〰️जानिये क्यो महर्षि नारद को बनना पड़ा था बन्दर

🔹🔹🔸🔹🔹🔸🔹ॐसत्य🔹🔸🔹🔹🔸🔹🔹🔸🔹🔹

*नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥

गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥

 

श्री नारद बड़े ही तपस्वी और ज्ञानी ऋषि हुए जिनके ज्ञान और तप की माता पार्वती भी प्रशंसक थीं। तब ही एक दिन माता पार्वती श्री शिव से नारद मुनि के ज्ञान की तारीफ करने लगीं।

 

शिव ने पार्वती जी को बताया कि नारद बड़े ही ज्ञानी हैं। लेकिन किसी भी चीज का अंहकार अच्छा नहीं होता है। एक बार नारद को इसी अहंकार (घमंड) के कारण बंदर बनना पड़ा था।

 

यह सुनकर माता पार्वती को बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने श्री शिव भगवान से पूरा कारण जानना चाहा। तब श्री शिव ने बतलाया। इस संसार में कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, लेकिन श्री हरि जो चाहते हैं वो उसे बनना ही पड़ता है।

 

नारद को एक बार अपने इसी तप और बुद्धि का अहंकार (घमंड) हो गया था । इसलिए नारद को सबक सिखाने के लिए श्री विष्णु को एक युक्ति सूझी।

 

हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उस गुफा के निकट ही गंगा जी बहती थीं। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी।

 

वहां पर के पर्वत, नदी और वन को देख कर उनके हृदय में श्री हरि विष्णु की भक्ति अत्यन्त बलवती हो उठी और वे वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गए । नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से उनका स्वर्ग नहीं छीन लें।

 

इंद्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहां पहुंच कर कामदेव ने अपनी माया से वसंत ऋतु को उत्पन्न कर दिया।

 

पेड़ और पत्ते पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए कोयले कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल.मंद.सुगंध सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि अप्सराएं नाचने लगीं।

 

किन्तु कामदेव की किसी भी माया का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को डर सताने लगा कि कहीं नारद मुझे शाप न दे दें। इसलिए उन्होंने श्री नारद से क्षमा मांगी। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गए।

 

कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार (घमंड) हो गया कि मैंने कामदेव को जीत लिया। वहां से वे शिव जी के पास चले गए और उन्हें अपने कामदेव को हारने का हाल कह सुनाया। भगवान शिव समझ गए कि नारद को अहंकार हो गया है।

 

शंकरजी ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात विष्णु जी जान गए तो नारद के लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो बात मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना।

 

नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा कि आज तो मैने कामदेव को हराया है और ये भी किसी को नहीं बताऊं । नारद जी क्षीरसागर पह़ुंचे गए और शिव जी के मना करने के बाद भी सारी कथा उन्हें सुना दी।

 

भगवान विष्णु समझ गए कि आज तो नारद को अहंकार (घमंड) ने घेर लिया है। अपने भक्त के अहंकार को वे सह नहीं पाते इसलिए उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करूंगा कि नारद का घमंड भी दूर हो जाए और मेरी लीला भी चलती रहे।

 

नारद जी जब श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया। इधर श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में एक बड़े ही सुन्दर नगर को बना दिया । उस नगर में शीलनिधि नाम का वैभवशाली राजा रहता था।

 

उस राजा की विश्व मोहिनी नाम की बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसके रूप को देख कर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएं। विश्व मोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिए कईं राजा उस नगर में आए हुए थे।

 

नारद जी उस नगर के राजा के यहां पहुंचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और उसे देखते ही रह गए।

 

उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो विवाह करेगा वह अमर हो जाएगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त जीव उसकी सेवा करेंगे। यह बात नारद मुनि ने राजा को नहीं बताईं और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ और अच्छी बातें कह दी।

 

अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह कन्या मुझसे ही विवाह करे। ऐसा सोचकर नारद जी ने श्री हरि को याद किया और भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हो गए। नारद जी ने उन्हें सारी बात बताई और कहने लगे, हे नाथ आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दो, ताकि मैं उस कन्या से विवाह कर सकूं।

 

भगवान हरि ने कहा हे नारद! हम वही करेंगे जिसमें तुम्हारी भलाई हो। यह सारी विष्णु जी की ही माया थी । विष्णु जी ने अपनी माया से नारद जी को बंदर का रूप दे दिया । नारद जी को यह बात समझ में नहीं आई। वो समझे कि मैं बहुत सुंदर लग रहा हूं। वहां पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया।

 

ऋषिराज नारद तत्काल विश्व मोहिनी के स्वयंवर में पहुंच गए और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का रूप बना कर वहां पहुंच गए। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुंदर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी।

 

उनकी बातों से नारद जी मन ही मन बहुत खुश हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गए। विश्व मोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजा रूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी।

 

मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी । राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरमाला डालते देख वे परेशान हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने ताना कसते हुए नारद जी से कहा – जरा दर्पण में अपना मुंह तो देखिए।

 

मुनि ने जल में झांक कर अपना मुंह देखा और अपनी कुरूपता देख कर गुस्सा हो उठें। गुस्से में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुंह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से मिल चुका था।

 

नारद जी को अपना असली रूप वापस मिल गया था। लेकिन भगवान विष्णु पर उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योंकि विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हंसी हुई थी। वे उसी समय विष्णु जी से मिलने के लिए चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्व मोहिनी भी थीं, से हो गई।

 

उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा आप दूसरों की खुशियां देख ही नहीं सकते। आपके भीतर तो ईर्ष्या और कपट ही भरा हुआ है। समुद्र- मंथन के समय आपने श्री शिव को बावला बना कर विष और राक्षसों को मदिरा पिला दिया और स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभ मणि को ले लिया।

 

आप बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। हमेशा कपट का व्यवहार करते हो। हमारे साथ जो किया है उसका फल जरूर पाओगे। आपने मनुष्य रूप धारण करके विश्व मोहिनी को प्राप्त किया है, इसलिए मैं आपको शाप देता हूं कि आपको मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा ।

 

आपने हमें स्त्री से दूर किया है, इसलिए आपको भी स्त्री से दूरी का दुख सहना पड़ेगा और आपने मुझको बंद र का रूप दिया इसलिए आपको बंदरों से ही मदद लेना पड़े।

 

नारद के शाप को श्री विष्णु ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिए शाप को याद कर के नारद जी को बहुत दुख हुआ किन्तु दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिए श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बन कर अवतरित होना पड़ा।

 

शिव जी के उन दोनों गणों ने जब देखा कि नारद अब माया से मुक्त हो चुके हैं तो उन्होंने नारद जी के पास आकर और उनके चरणों में गिरकर कहा हे मुनिराज! हम दोनों शिव जी के गण हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है जिसके कारण हमें आपसे शाप मिल चुका है। अब हमें अपने शाप से मुक्त करने की कृपा करें ।

 

नारद जी बोलें मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता इसलिए तुम दोनों रावण और कुंभ कर्ण के रूप में महान ऐश्वर्यशाली बलवान तथा तेजवान राक्षस बनोगे और अपनी भुजाओं के बल से पूरे विश्व पर विजय प्राप्त करोगे। उसी समय भगवान विष्णु राम के रूप में मनुष्य शरीर धारण करेंगे। युद्ध में तुम दोनों उनके हाथों से मारे जाओगे और तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी

अनिल निश्चछल

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