निर्वाण का अर्थ है “निराकार”। निर्वाण यात्रा का मतलब निराकार की और जाना |
निराकार तो केवल ब्रह्म है ,वो ईश्वर है ,परमात्मा है,———-
निर्वाण षट्कम (6, क्रम से समझाया गया है )
हमारे शरीर में मन स्थिर नहीं रहता ,ये हमेशा कुछ न कुछ करता रहता है |खाली नहीं बेठता , यानि कुछ न कुछ सोचता रहता है ,प्लानिंग करता रहता है आने वाले समय की योजना बनता रहता है| कुछ बनना चाहता है, भोतिक जगत में रहने से ये भोतिक इछाओ की ही पूर्ति का विचार करता है | मै ये बन जाऊ मै वो बन जाऊ ,ऐसा हो वैसा हो सब मेरी इच्छा के अनुसार हो ,—- – – मन इन्द्रियों और उनके विषय में इतना असक्त रहता है की और कुछ सोच ही नहीं पाता, जैसी संगत वैसी रंगत ….. मन की तन्मैता शरीर से इस प्रकार जुडी हुई है की ये इस भोतिक शरीर को मै मान लेता है, फिर मै ही करता हू, ऐसा विचार सारी उम्र बना रहता है और पूरा जीवन व्यर्थ बीत जाता है |
निर्वाण षटकम्:
इस बारे में है कि – आप इस जीवन में यह या वह नहीं बनना चाहते। यदि आप यह या वह नहीं बनना चाहते, तो आप क्या बनना चाहते हैं आपका मन यह नहीं समझ सकता, क्योंकि आपका मन हमेशा कुछ न कुछ बनना चाहता है। उसको भोतिक जगत दिखाई देता हे अधिक समय ,उसका ध्यान कुछ पल के लिये जाये भी तो वो वहा टिकता नहीं क्योकी ये उसका सवभाव बन चुका हे भोतिक जगत के साथ ऐसे में मन को एकाग्र कर जब अध्यात्म की और चलते है तो – खुद को जानने के लिए .उस परमात्मा और जीव के सम्बंद के ज्ञान में निर्वाण षटकम्: ये बहुत सहायक सिद्ध होता है
निर्वाण
शून्य स्थिति को प्राप्त होना ,निश्चल, शांत। बुझना’बुझा हुआ’ (दीपक अग्नि, आदि)।अंत, समाप्ति।
लालच, घृणा और भ्रम या दु:ख से मुक्ति पाने की स्थिति मोक्ष या निर्वाण हे |
संतुलन को लाना और इच्छा का न होना निर्वाण हैं। इच्छा का अर्थ अभाव हैं, जब आप कहते हैं मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं संतुष्ट हूँ, वह निर्वाण हैं। यहाँ तक ज्ञानोदय की तृष्णा भी ज्ञानोदय में बाधा हैं। सभी भावनाये लोग, वस्तु और घटनाओ से जुडी होती हैं। वस्तु, लोग और सम्बन्ध में फंसे रहना मोक्ष और मुक्ति मिलने में बाधा हैं। जब मन सभी आवृतियो और अवधारणाओ से मुक्त हो जाता हैं तो आप को मोक्ष प्राप्त हो जाता हैं। कुछ भी नहीं या शुन्य की अवस्था को निर्वाण,ज्ञानोदय, समाधी कहते हैं। मैं से स्वयं में जाना निर्वाण हैं। मैं कौन हूँ?
सबकुछ बदल रहा हैं
जब आप स्वयं के गहन में जाते हैं, तो आप अलग अलग परतो को पाते हैं, वह निर्वाण हैं। यह एक प्याज को छीलने के जैसे हैं। आप प्याज के केंद्र में क्या पाते हैं? कुछ नहीं। जब आप समझ जाते हैं कि सारे सम्बन्ध,लोग, शरीर भावनाये सबकुछ बदल रहे हैं – तो फिर वह मन जो दुखो में झुंज रहा होता हैं, वह एकदम अपने स्वयं में वापस आ जाता हैं। मैं से स्वयं में वापसी आपको संतोष प्रदान करते हुए दुःख से मुक्ति देता हैं। उस संतोष की अवस्था का विश्राम निर्वाण हैं।
निर्वाण षटकम्:
आचार्य आदि शंकराचार्य जी की सौन्दर्य लहरी से

इस स्तोत्र-रचना निर्वाण षटकम् का ज्ञान प्राप्त हुआ। सहज और सरल प्रवाहपूर्ण संस्कृत में इस रचना में जो ज्ञान दिया हे वो परमात्मा से मिलन में बहुत सहायक है ।
निर्वाण षटकम् का हिन्दी भावानुवाद
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम्
न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायु:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु:
न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं
मैं न सात धातु हूं,
और न ही पांच कोश हूं
मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
1. प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान;
2. त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा;
3. अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनन्दमय;
4. गुदा, जननेन्द्रिय, पैर, हाथ, वाणी
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥३॥
न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह
न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या
मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥४॥
मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं
मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ
न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥५॥
न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव
मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था
मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य,
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेय:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥६॥
मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं
मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं,
न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं,
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अनिल निश्चछल

